शायद चाँद से मिली है
रविवार, 24 अप्रैल 2011
दोस्तो वो बाज़ नहीं
एक चिड़िया थी
जिसके दो नन्हें पंख थे
दिनभर फुदकती
नन्हें अरमानों से भरे
परों के साथ
रात ढले उड़ना पड़ता
नीमबाज़ आंखे नमकीन हो
हल्की सी जान में
उमस भर देतीं
बिना रौशनदान के घर में
थोड़ी सी बंद हवाओं के बीच
उसे उड़ना होता
हर लम्हा उसे अपने पंखो के घायल हो
जाने का डर बना रहता
दिनभर बंद रौशनी में
दाना चुगती और चुगाती
थोड़ी सी उड़ान में भी
आसमान को ज्यादा छूती
इसीलिये मुंडेर पर बैठे
कुछ परिंदे यह सोचते कि
इसके पंखो को चमक
शायद चाँद से मिली है
बंद आशियाने में उड़ते वक्त
उसके पंख घायल हो जाते
दर्द की उफ्फ भी
दबती रही
बंद कमरों की बहरी दीवारों में
गिद्ध जैसा वक्त नोचता रहता
उसके भोले और मासूम पंखो को
बड़ी बेरहमी से
दानों को चुगता और
पंखों को तोड़ता
कुम्हलाने के बाद भी वो मुस्काती
और हर सुबह सूरज की किरणों पर सवार हो
मुंदी खिड़कियों के बंद कमरे में
रोज एक उड़ान भरती
और कोशिश करती
एक फ़िज़ा बनाये
इन बंद कमरों के
अंधेरे क्षितिज पर
जहाँ सब कुछ हो
पर्वत,पहाड़,डाल,पात
झूला,सावन,भादो,शीतल हवायें ......
वो सब मौसम
जिनके बिना भी
वह उड़ती रही है अब तक
उसके बनाये आडम्बर में
सभी संभावनाओं के साथ उडान भरती
बस थोड़ी सी हवा ही कम पड़ जाती
और वो घायल मन के साथ
पंखो को सहलाते हुये बैठ जाती
कहीं किसी कोने में
अंधेरा बहुत होता !!!
000
संध्या आर्या
संध्या आर्या जी का परिचय उन्हीं के शब्दों में
पिछले 14 सालो से मुम्बई में प्रवास। पिछ्ले दो साल से ब्लाग पढ़ती रही हूँ और एक साल से कवितायें लिख रही हूँ।साहित्य से कोई खास लगाव नहीं रहा पर पता नहीं कब कुछ लिखने लगी और लोगों ने उसे कविता कहना शुरू कर दिया।हाँ,मुम्बई के साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अक्सर हिस्सा लेती रही हूँ !