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बाल नाटकों क एक अच्छा संकलन: “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक

रविवार, 13 दिसंबर 2015

   

हिन्दी में बाल नाटकों की कमी हमेशा महसूस की जाती रही है।खासकर इधर के कुछ वर्षों में तो बाल नाटक कम लिखे गये या जो लिखे गये वो बाल रंगमंच से जुड़े लोगों तक पहुंचे नहीं।यह कमी उस समय और महसूस होती है जब गर्मियों में पूरे देश में बच्चों के लिये तमाम रंग संस्थाएं,रंगकर्मी और स्कूल्स के अध्यापक बच्चों के नाटकों की स्क्रिप्ट्स खोजने लगते हैं।
        ऐसे में या तो उन्हें बहुत बड़े और मोटे साथ ही महंगे बाल नाटकों के संग्रह खरीदने पड़ते हैं या कोई सामान्य नाटक लेकर ही काम करना पड़ता है।।ऐसी स्थिति में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान(लखनऊ) द्वारा संस्थान द्वारा प्रकाशित की जा रही बाल पत्रिका बालवाणी का बाल नाटक विशेषांक निकालना एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य है।
   बालवाणी-नवम्बर-दिसम्बर-2015 के इस बाल नाटक विशेषांक में पुराने और नये मिलाकर कुल बारह रचनाकारों के बाल नाटक शामिल किये गये हैं।पानी आ गया(विष्णु प्रभाकर),भों भों-खों खों(सर्वेश्वर दयाल सक्सेना),बाल दिवस की रेल(अमृत लाल नागर),अपने अपने छक्के(के0पी0 सक्सेना),नन्हा सिपाही(मनोहर वर्मा),परिवर्तन(डा0श्री प्रसाद),ताबीज(देवेन्द्र मेवाड़ी),देश की खातिर(भगवती प्रसाद द्विवेदी),वीर बालक भीमा(प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव),चिड़ियों का अनशन(डा0हेमन्त कुमार),प्रकृति का बदला(रमाशंकर),कहां गये रूपये(ज़ाकिर अली रजनीश
        बालवाणी का यह विशेषांक कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।पहली बात तो आज की महंगाई के जमाने में बाल पाठकों,बाल रंगकर्मियों,नाट्य निर्देशकों को मात्र 15रूपयों(पत्रिका का मूल्य) में एक साथ 12 अच्छे बाल नाटकों का आलेख प्रदान करना।जिसका आनन्द पढ़ने और मंचन दोनों में ही मिलेगा। दूसरी बात इन नाटकों में विषय की विविधता है।पाठकों रंगकर्मियों को हर तरह के नाटक मिलेंगे-- मनोरंजक,ऐतिहासिक,वैज्ञानिक सोच पैदा करने वाले,पर्यावरण की चेतना जगाने वाले आदि।इन नाटकों के चयन में इस बात का पूरी तरह ध्यान रखा गया है कि नाटक आसानी से मंचित किये जा सकें।उनके मंचन में कोई बहुत बड़ा सेट न लगाना पड़े,बहुत ज्यादा प्रापर्टीज न इकट्ठी करनी हो।यह इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती है।नाटकों में छोटे छोटे संवाद और दृश्य हैं जो कि बच्चों को आसनी से याद हो सकेंगे।ज्यादातर नाटकों की भाषा सरल और सहज है जिसे समझने में बच्चों को दिक्कत नहीं आयेगी।
    दूसरी बात यह कि इस विशेषांक में ही आदरणीय अमृत लाल नागर जी का एक बहुत महत्वपूर्ण लेख है—“आओ बच्चो नाटक लिखें।नागर जी का यह लेख बच्चों को तो नाटक लिखने की जानकारी देगा ही साथ ही नये बाल नाटक लेखकों का भी मार्ग दर्शन करेगा।इस लेख में बच्चों के नाटक लिखते समय किन किन बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये इसका बहुत अच्छा और सम्यक विश्लेषण किया गया है।
     बालवाणी के इस विशेषांक में एक और भी महत्वपूर्ण और उपयोगी लेख है—“लोरियों की विशिष्ट रचनाकार शकुन्तला सिरोठिया”—जिसे बन्धु कुशावर्ती ने लिखा है।यह लेख भी इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि बच्चों को बाल साहित्य तो हम पठन सामग्री के रूप में देते हैं।लेकिन बाल पाठक प्रायः उन रचनाकारों से अन्जान रहता है जो उसके मनोरंजन,शिक्षा और मार्गदर्शन के लिये दिन रात मेहनत करते रहते हैं। अगर बाल साहित्यकारों का सम्यक परिचय देने वाली एक शृंखला पत्रिका द्वारा शुरू की जाय तो यह एक और सार्थक प्रयास होगा बाल साहित्य को आगे बढ़ाने की दिशा में।
      बालवाणी के इस अंक में इन नाटकों लेखों के साथ ही बाल पाठकों के लिये दिविक रमेश जी और राजेन्द्र निशेश जी के मनोरंजक और प्यारे बालगीत भी हैं।जिन्हें पढ़ कर हर बच्चे का मन इन्हें एक बार जरूर गुनगुनाएगा।उषा यादव के बाल नाटक संग्रह ममता का मोल की योगीन्द्र द्विवेदी द्वारा की गयी समीक्षा बच्चों को कुछ और नाटकों से परिचित कराएगी और उन्हें पढ़ने के लिये प्रेरित भी करेगी।
   एक बात मैं यह भी कहना चाहूंगा कि यदि बालवाणी का यह बाल नाटक विशेषांक किसी तरह से हमारे प्रदेश के समस्त सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पहुंच सके तो इस विशेषांक की सार्थकता और बढ़ जाएगी।
        कुल मिलाकर बालवाणी का यह बाल नाटक विशेषांक बाल पाठकों के साथ ही बाल रंग कर्म से जुड़े हर व्यक्ति के लिये काफ़ी उपयोगी साबित होगा।इस अच्छे और सराहनीय कार्य के लिये उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान को ढेरों बधाई।
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डा0हेमन्त कुमार

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आभासी दुनिया ने खत्म की रचनाकारों और पाठकों के बीच की दूरियां---।

बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

    
साहित्य हमेशा तमाम तरह के खतरों और विरोधाभासों के बीच लिखा जाता रहा है,और लिखा जाता रहेगा। लेकिन साहित्य तो अन्ततः साहित्य ही कहा जायेगा,उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम भले ही बदलता जाय।इधर काफ़ी समय से साहित्य जगत में इस बात से खलबली भी मची है और लोग चिन्तित भी हैं कि अन्तर्जाल का फ़ैलाव साहित्य को नुक्सान पहुंचायेगा। लोगों का चिन्तित होना स्वाभाविक है।लेकिन क्या किसी नये माध्यम के चैलेंज का साहित्य का यह पहला सामना है?इसके पहले भी तो जब टेलीविजन पर सीरियलों का आगमन हुआ था,नये चैनलों की भरमार हुयी थीक्या तब भी साहित्य के सामने यही प्रश्न नहीं उठे थे? तो क्या चैनलों के आने से साहित्य के लेखन या पठनीयता में कमी आ गयी थी?अगर आप पिछले दिनों को याद करें तोचन्द्रकान्ता धारावाहिक के प्रसारण के बाद चन्द्रकान्ता सन्तति उपन्यास तमाम ऐसे लोगों ने पढ़ा जिनसे कभी भी साहित्य का नाता नहीं रहा था।भीष्म साहनी का उपन्यास तमस,मनोहर श्याम जोशी का कुरु कुरु स्वाहा, तमस और कक्का जी कहिन धारावाहिकों के प्रसारण के बाद तमाम पाठकों ने उत्सुकतावश पढ़ा।तो टेलीविजन ने साहित्य के पाठक कम किये या बढ़ाये?ठीक यही बात मैं अन्तर्जाल या आभासी दुनिया के लिये भी कहूंगा।अन्तर्जाल के प्रसारऔर ब्लाग जैसे अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम की बढ़ती संख्या के साथ ही एक बार फ़िर साहित्य से जुड़े लोगों को तमाम तरह के खतरे नजर आने लगे हैं।उनके मन में तरह तरह की शंकाएं जन्म लेने लगी हैं।जबकि मुझे नहीं लगता कि साहित्य को ब्लाग या अन्तर्जाल से किसी प्रकार का कोई खतरा हो सकता है। क्योंकि किसी भी नये माध्यम के नफ़े नुक्सान दोनों ही होते हैं।अब यह तो साहित्यकारों के समूह पर है कि वह इस विशाल,वृहद आभासी दुनिया से क्या लेता है क्या छोड़ता है।
साहित्य के ऊपर इस आभासी दुनिया का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही
तरह का प्रभाव पड़ रहा है।सकारात्मक इस तरह कि
v     इस आभासी दुनिया की वजह से दिग्गजों और मठाधीशों(साहित्य के अखाड़े के) की मठाधीशी अब खतम हो रही है।पहले जहां साहित्य कुछ गिने चुने नामों की धरोहर बन कर रह गया था वो अब सर्व सुलभ हो रहा है।आप देखिये कि जहां बहुत सारे नये लेखक,कविकिसी पत्र पत्रिका में छपने को तरस जाते थे(मठाधीशी के कारण)वो आज इसी आभासी दुनिया के कारण ही प्रकाशित भी हो रहे हैं,पढ़े भी जा रहे हैं और अच्छा लिख भी रहे हैं।
v     आभासी दुनिया में हर रचना का तुरन्त क्विक रिस्पान्स मिलता है।अच्छा हो या बुरा तुरन्त आपको पता लगता है,आप उसमें परिवर्तन परिमार्जन भी कर सकते हैं।जब कि प्रिण्ट में ऐसा नहीं है।आपको लिखने के कई-कई महीने बाद अपनी रचना पर प्रतिक्रियायें मिलती हैं।आप आज लिखते हैं, हफ़्ते भर बाद किसी पत्र-पत्रिका में भेजते हैं।वह स्वीकृत होकर महीनों बाद छपती है।तब कहीं जाकर उस पर आपको पाठकीय प्रतिक्रिया मिलती है।जबकि आप ब्लाग पर या किसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर लिखते हैं तो वहां आपने रात में लिखा और और सुबह तक आपके पास प्रतिक्रियायें हाजिर।कुछ तारीफ़ कीकुछ सुझावों या वैचारिक मतभेद के साथ।
v     लेखक और प्रकाशक(प्रिण्ट माध्यम)दोनों अब आमने सामने हैं।आभासी दुनिया में जहां लेखक को पाठक उपलब्ध हैं वहीं आज आप देखिये कि प्रकाशक भी आसानी से अच्छे और नये लेखकों को अन्तर्जाल से लेकर छाप रहा है।ये हमारे साहित्य,साहित्यकारों,पाठकों सभी के लिये एक शुभ संकेत है।
जहां तक नकारात्मक प्रभाव की बात है---उसके खतरों से भी आप इन्कार नहीं कर सकते।
v     बहुत से रचनाकारों की रचनायें अच्छी और स्तरीय न रहने पर भी वाह-वाह, सुन्दर,प्रभावशाली जैसी टिप्पणियां रचनाकार को नष्ट करने का काम कर रही हैं।और इस बेवजह तारीफ़ का शिकार होकर कुछ रचनाकार अपने शुरुआती मेहनत और लगन के दौर में ही शायद खतम हो सकते हैं।
v     ऐसे भी रचनाकार यहां आपको मिलेंगे जो सिर्फ़ यही तारीफ़ सुनने या अपना मनोरंजन करने के लिये कुछ भी लिख रहे हैं,जिसका साहित्य,समाज,देश के लिये या पाठकों के लिये भी कोई उपयोग नहीं।ऐसे साहित्य की भरमार होने पर इस आभासी दुनिया में से अच्छे रचनाकारों को खोजना अपेक्षाकृत कठिन हो जायेगा।
इसके बावजूद मेरा मानना यही है कि अन्तर्जाल ने आज साहित्यकारों,पाठकों और
प्रकाशकों को आपस में इतना करीब ला दिया है कि अब प्रकाशित होना,पढ़े जाना कोई समस्या नहीं।और मुझे लगता है कि यदि इसे थोड़ा सा नियन्त्रण में रखा जाये तो यह आभासी दुनिया रचनाकारों,पाठकों,प्रकाशकों के बीच एक अच्छे और मजबूत सेतु का काम करेगी।
       जहां तक मंचों या समूहों की बात है इस समय फ़ेसबुक पर ही साहित्यकार सन्सद,रचनाकार,वर्ल्ड आफ़ चिल्ड्रेन्स लिट्रेचर आर्ट ऐण्ड कल्चर,दैट्स मी,गीत गज़ल और मुक्तक,हिन्दी साहित्य,ब्लागर्स रिफ़्लेक्शन,ब्लागर बाइ पैशन,समीक्षा ब्लाग,पुनर्नवा---जैसे सैकड़ों समूह ऐसे हैं जो सिर्फ़ साहित्य रचना के उद्देश्य से बनाये गये हैं।अब ये समूह कितना काम करेंगे यह तो भविष्य बतायेगा।लेकिन इतना तो तय है कि ये समूह भी आपसी विचार विमर्श,साहित्य चर्चा के अच्छे मंच साबित हो रहे हैं।मैं खुद इण्डियन चिल्ड्रेन्स लिट्रेचर समूह से जुड़ा हूं---और देख रहा हूं कि इस समूह में बाल साहित्य को लेकर सार्थक चर्चायें हो रही हैं।इसी ढंग से साहित्यकार संसद में भी लोग साहित्य पर अपने विचार देते हैं।पर बहुत से समूह ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ़ सेल्फ़ प्रमोशन के लिये ही बनाया गया है।अभी मैं एक नये समूह से जुड़ा---डायट,लखनऊ----।इस समूह में मुझे लग रहा है कि ज्यादातर सदस्य(छत्र-छात्रायें)काफ़ी सृजनशील और जिज्ञासु हैं जो कि एक अच्छी बात है समूह के सदस्यों,समाज, और प्राथमिक शिक्षा के साथ ही किसी समूह के लिये भी।फ़ेसबुक के अलावा गूगलप्लस या और भी वेबसाइट्स पर ऐसे ढेरों समूह हैं जहां सार्थक विचार विमर्श चल रहे हैं।
    आज आप देख सकते हैं कि पूरे साहित्य जगत में ब्लाग,फ़ेसबुक,ट्विटर,गूगल प्लस की चर्चा हो रही है। हर महीने अगर आप नेट पर या अखबारों में देखें तो किसी न किसी शहर में आपको ब्लागर्स मीट सम्पन्न होने,किसी ब्लागर के सम्मानित होने,ब्लाग माध्यम  पर आधारित किसी पुस्तक का विमोचन होने,ब्लाग्स पर किसी सेमिनार,संगोष्ठी की खबर जरूर पढ़ने को मिल जायेगी। मेरी जानकारी में कई विश्वविद्यालयों में भी इस नये माध्यम पर सेमिनार,संगोष्ठियों का आयोजन हुआ है। इसके अलावा भी विशुद्ध साहित्यिक संगोष्ठियों में भी अब इस माध्यम के बारे में थोड़ी बहुत चर्चायें तो हो ही रही हैं।
       मुझे खुद नेट से जुड़े हुये लगभग तीन साल हुये हैं।मैं ब्लाग से तब परिचित हुआ जब अमिताभ बच्चन और शाहरुख का वाक युद्ध ब्लाग पर आया था।मैंने मित्र लोगों से पूछ पूछ कर ब्लाग के बारे में जानकारी इकट्ठी की और इसकी मारक क्षमता को समझकर इससे जुड़ गया।आप आश्चर्य करेंगे जहां मेरे पाठक 2008 में सिर्फ़ भारत में थे वहीं आज की तारीख में दुनिया के हर देश में मेरे दो चार पाठक मौजूद हैं।यह सब इसी आभासी दुनिया का ही तो कमाल है।
            और मुझे लगता है कि जिस रफ़्तार से हमारे देश में(पूरे विश्व की बात नहीं करूंगा)में अन्तर्जाल पर ब्लाग्स,सोशल नेट्वर्किंग साइट्स,समूह,फ़ोरम बनते जा रहे हैं उससे यही प्रतीत होता है कि पूरे देश में एक तकनीकी क्रान्ति आ चुकी है जिससे जुड़ कर लोग एक दूसरे के काफ़ी करीब हो रहे हैं।एक दूसरे को सुन रहे हैं।समझ रहे हैं और सबसे बड़ी बात इस आभासी दुनिया ने दूरियों को समाप्त कर दिया है।और यह सही वक्त है देश को,समाज को,राष्ट्र को एक सही दिशा देने में इस आभासी दुनिया के सदुपयोग का।तभी हम सही मायनों में सूचना तकनीकी के सही लाभार्थी कहे जायेंगे।
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ड़ा0हेमन्त कुमार

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पिघला हुआ विद्रोह

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

सूरज धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था और बेमतलब शोर करते पीपल के पत्तों से छनकर आती उसकी किरणें सीबू के शान्त चेहरे पर पड़ने लगी थीं।उसके गालों पर दोनों ओर से बह आयी आँसू की टेढ़ी मेढ़ी लकीरें अब भी कुछ-कुछ गीली थीं।अपनी अधमुंदी पलकों से वह एकटक आँगन के उस दरवाजे को देख रही थी जो एक उसके लिए छोड़कर शेष सब के लिए खुला हुआ था।रसोई में  अभी-अभी छौंकी गयी सब्जी की महक उसके कल शाम से भूखे पेट के लिए बड़ी मोहक हो सकती थी मगर इस वक्त उसका ध्यान उधर भी बिल्कुल न था।वह कुछ सोच भी नहीं रही थी।सोचती जरूर मगर उसे कभी किसी बात के लिए सोचना नहीं पड़ा था।इसलिए उसकी सोचने की आदत न थी।एक घड़ी पहले जब माँ ने कंधों के पास से दोनों हाथों को पकड़ कर उसे बुरी तरह झकझोरा था और फिर उसे दरवाजे से बाहर कर दिया था तब अवश्य एक बार उसकी आँखों में बड़ी गहराई तक आंतक उतर आया था।मगर इस वक्त वह एकदम सहज और निर्विकार लग रही थी।
         माँ की खास शिकायत थी---सीबू अब जिद्दी और बेकाबू होती जा रही है।उस पर माँ का रोब अब कत्तई नहीं रह गया है।उसके कहने को वह अक्सर टाल जाती है।और उसे गुमराह करने में सब से बड़ा हाथ है पड़ोस के शान्ति बाबू की उसी की हम उम्र लड़की पप्पी का।माँ ने कोई कोशिश बाकी न रखी कि पप्पी उसके यहाँ न आये अथवा सीबू स्कूल जाते समय पप्पी को भी अपने साथ न ले-ले। अथवा दोनों दोपहरी के एकान्त में चुपके से सड़क पर कदरे बीनने न पहुँच जायँ।मगर माँ की हर कोशिश नाकामयाब हुई और इस नाजुक उम्र में ही सीबू उसकी आँख में किरकिरी बन गयी।
            कल शाम छोटी लड़की ने टट्टी की तो किसी काम में हाथ फ़ंसे होने की वजह से माँ ने सीबू से कहा कि वह उसे कागज में उठाकर नीचे की नाली में फेंक दे।बस सीबू ने बगावत कर दी।उसने हाथ में पकड़ी हुई किताब को और भी कस कर पकड़ लिया तथा आँखें अक्षरों पर और तेजी से दौड़ाने लगी।माँ जितना ही चीखती गयीं सीबू के कान उतने ही बहरे होते गये।और तब माँ ने गुस्से से उसके हाथ की किताब छीनकर दूर फेंक दी तथा उसे घसीटकर टट्टी के करीब ला पटका।सीबू न चीखी, न रोई मगर उसने धीरे से टट्टी को उठाकर बारजे के नीचे गिरा दिया।टट्टी नाली में न जा चबूतरे पर बिखर गयी।माँ अपेक्षा करती थीं कि सीबू ही अपनी इस गलती को ठीक करे।वह नीचे जाकर टट्टी को नाली में गिराये और चबूतरे को भी साफ कर दे।मगर सीबू--- बाल नोचवाये जाने और चाँटे पर चाँटे खाये जाने के बावजूद वह अपनी जगह बुत बनी बैठी रही।कई बार आँसू छलके और सूखे।उसने रात का भोजन भी नहीं लिया और यों ही सो गयी।
            रात दफ्तर से लौटने पर मुझे बताया गया।सीबू इस हद तक पहुँच सकती है मुझे यकीन नहीं हो रहा था।मगर पत्नी कह रही थी इसलिए मानना पड़ा।चूँकि मैं अपने बच्चे को क्या मुहल्ले या कहीं के किसी भी बच्चे को इतना खतरनाक नहीं मानता इसलिए बात मेरे भीतर जम नहीं रही थी।फिर सीबू की तो बात ही और है।उसकी भोली आँखों में एक अजीब मासूमियत घुली रहती है।लगता है कि जरा भी जोर से बोलो तो वे छलक पड़ेंगी।उसे कोई अलग से नहीं पढ़ाया फिर भी वह इतनी तेज है कि इस साल उसे डबल प्रमोशन मिल गया।वह दो के बाद चौथे दरजे में कर दी गयी।उसी सीबू  के बारे में इतनी बातें सुनकर मन न जाने कैसा हो उठा।
            सुबह मैंने सीबू को अपने पास बुलाया। मेरा सोचना सच था।उसका चेहरा हमेशा की तरह मासूम था।आँखों में बीती हुई यातना के प्रति जैसे कोई शिकायत न थी।मैंने प्यार से उसके बालों को सहलाते हुए पूछना शुरू किया, ‘कल शाम तूने यह क्या शरारत की है? सीबू, तू तो बहुत समझदार और अच्छी लड़की है,बोल?’
जबाब में वह खामोश फर्श की ओर टुकुर-टुकुर ताकती रही।
मैंने कंठ में दूना प्यार उडेलकर पूछा,‘कहीं माँ से भी जिद की जाती है? माँ कितना प्यार करती हैं तुझे! उसने एक काम करने के लिए कह दिया तो उसे तूने सुना क्यों नहीं?’
       लेकिन सीबू निश्चल थी जैसे मेरी बात उसके कानों में प्रविष्ट नहीं हो रही है।मुझे अचानक डर महसूस होने लगा कि कहीं मेरा सोचना गलत न निकले।किसी भी अवस्था में सीबू के प्रति अपनी धारणा बदलने में मुझे बेहद कष्ट होता।
            मैंने अपनी आवाज भरसक मुलायम ही रखते हुए पूछा,अपनी छोटी बहन की टट्टी तो तूने और भी कई बार फेंकी है।फिर कल क्या बात हो गयी?चबूतरे पर से टट्टी को नीचे नाली में क्यों नहीं गिराया?’
            सीबू बुत बन गयी।निःशब्द और अकम्प।मुझे लगा कि मैं अपना धैर्य खो रहा हूं और उसके लिए मुझे काफी मानसिक परिश्रम करना पड़ रहा है।फिर भी मैने उसके बालों को पहले की तरह सहलाते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘तू तो रानी बिटिया है न ! इस तरह की जिद नहीं करनी चाहिए।इस बार गलती से ऐसा हो गया।अब आगे कभी इस तरह माँ की बात नहीं टालेगी न ?’
            और सीबू एकदम खामोश !
            मेरा धैर्य टूटने लगा।आवाज में अनचाहे तल्खी आ गयी, ‘बोल, चुप क्यों है? मेरी बात का जबाव क्यों नहीं देती ?’
मगर सीबू बहरी हो गयी थी।
            मेरी आवाज कठोर हो गयी, ‘मुँह में ताला लगा रखा है क्या ? बोल, तो कभी इस तरह की शरारत नहीं करेगी ?’
‘....................................................’
मैं पूछता हूं तू बहरी हो गयी है क्या ?’
‘.....................................................’
लगाऊँ दो हाथ !कल माँ  से लड़ी और आज मेरा सामना करने के लिए तैयार है!
‘..................................................’
चट चट चट!मैंने उसकी कनपटी पर तीन चार तमाचे जड़ दिये।सीबू के चेहरे से मासूमियत गायब हो चुकी थी।उसमें और गंदे नाले की पुलिया पर झगड़ने वाले बच्चों में कोई फर्क न रह गया था।उसके गिरते हुए आँसुओं में मुझे किसी खतरनाक साजिश की बू आ रही थी।साफ जाहिर हो गया कि अभी-अभी जो इमारत ढही है वह बालू की थी !
 उसी समय पत्नी ने प्रवेश करके कहा, ‘मैं एक घंटे से तुम्हारा नाटक देख रही थी।शायद तुम्हें सुबहा था कि सारा कसूर मेरा है, तुम्हारी बच्ची तो एकदम दूध की धुली हुई है।अब तो खुल गयीं आँखे ?’
            कहने के बाद जो गुस्सा बचा उसे सीबू के दोनों हाथ पकड़कर घर से बाहर धकेलते हुए पूरा कर दिया।खबरदार, जो इस घर में पैर रखा।आज मैं तुझे दिन भर भूखी रखूँगी।देखती हूं तू कब तक मेरा सामना करती है!
            और अब गरमी का सूरज काफी ऊपर चढ़ आया है।सीबू पीपल के नीचे उसी तरह उकडूं होकर निश्चल लेटी हुई है।धूप पहले से तेज हो गयी है और उसके गालों पर से आंसू की लकीरें शायद अब सूख चुकी हैं।
            मैं आफिस जाने के लिए साइकिल पर बैठता हुआ एक बार उस ओर देखता हूँ।पता नहीं किस कोने से एक इच्छा झांकने लगती है--सीबू एक नजर मुझे देख लेती।मुझे भ्रम हुआ--शायद वह मुझे देख रहीं है! मगर नहीं, उसकी पलकें अधमुंदी हैं जिनके नीचे से वह केवल सामने के कुछ खुले दरवाजे में जाते आते पैरों को ही देख सकती हैं।
            मैं खाँसता हूँ, शायद उसे मेरे वहां खड़े होने का अहसास हो जाय और अचानक उसकी पलकें कुछ और खुल जाएं।लेकिन उसकी समाधि की अखंडता तो एक चुनौती बनी हुई है।और मैं पैडिल पर धीरे-धीरे पैर मारता हुआ आगे बढ़ने लगता हूं।
                पता नहीं कहां से सामने रैक पर रखी हुई फाइल पर एक कीड़ा आ गिरा है।वह निश्चल है, जिन्दगी की कोई हरकत नहीं नजर आती, जैसे मुर्दा हो।अचानक वह कीड़ा धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है।वह एक लाल बूटों वाली फ्राक पहन लेता है।उसकी अधमुंदी पलकों के नीचे से मटमैली सी कुछ पतली लकीरें बह निकलती हैं।
            मैं अपनी दोनों कोहनियों को थोड़ा झटकता हूं।वह फिर कीड़ा बन गया है और उसी तरह निश्चल पड़ा हुआ है।मैं क्षण भर के लिए उस पर से अपनी आँखें हटाता हूँ कि पता नहीं किधर से एक छिपकली निकलती है और उसक कीड़े को चट कर जाती है।मैं सिहर उठता हूँ।अपने चकराते हुए सिर को दोनों हथेलियों में थामने को कोशिश करता हूं।यह क्या हो रहा है।
            आज मैं कितना प्यासा हो उठा हूं।गिलास पर गिलास खाली करता चल रह हूं।पर खुश्की खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।दिन काटे नहीं कट रहा है।सेकंड की सूइयाँ इतना सुस्त क्यों हो गयी हैं।लोग कितना गलत कहते हैं कि वक्त बहुत तेजी से भागता है।
            शाम घर पहुँचते ही पत्नी खुशखबरी देती है, ‘सीबू अब फिर एक अच्छी लड़की बन गयी है।उसने अपनी गलती मान ली है और अपने कान पकड़ कर तीन बार कहा है कि अब ऐसी हरकत वह कभी नहीं करेगी।उसने मेरे और बड़े भइया के पैर छुए हैं।
            मन पर से जैसे एक बड़ा बोझ हट जाता है।सब कुछ इतने  सहज ढंग से हो जायेगा मैं सोच भी नहीं सकता था।
            मै अपने कमरे में लौटने को होता हूं कि पीछे से आकर सीबू मेरे पैर छू लेती है।मैं गदगद हो उठता हूं।और प्यार से उसका चेहरा ऊपर उठता हूं।
            मगर यह क्या है!मैं उसका चेहरा देखकर कांप उठता हूं।मैं यह नहीं चाहता।मुझे तो पीपल के नीचे लेटी हुई अपनी वही सीबू चाहिए। धूप की तेजी से जिसके दोनों गाल तमतमा आये हों और जिन पर फैली हुई आंसुओं की लकीरें मुझे खामोशी के साथ आवाज देती हों।नहीं, सीबू की माँ, तुम्हें धोखा हुआ है।तुमने आज एक बड़ी कीमती चीज खो दी और तुम्हें उसका जरा भी अहसास नहीं है।
            मैं सीबू के शान्त चेहरे को अपनी काँपती उँगलियों से सहलाता हुआ पीड़ा से कराह उठता हूँ।
                                         
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लेखक
प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना,प्रसाद,ज्ञानोदय,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी,नई कहानी,विशाल भारत, आदि  में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र आज 86 वर्ष की उम्र में भी जारी है। अभी हाल में ही नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यास मौत के चंगुल में प्रकाशित।
सम्पर्क---
प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
mobile---07376627886

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एक संवाद अपनी अम्मा से---।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

(आज दफ़्तर में बैठे बैठे आपकी बड़ी याद आयी अम्मा)

चाहता हूं
एक बार
बस एक बार मेरे हाथ
हो जाएं लम्बे
इतने लम्बे
जो पहुंच सकें दूर
नीले आसमान
और तारों के बीच से झांकते
आपके पैरों तक
अम्मा
और जैसे ही मैं स्पर्श करूं
आपके घुटनों को
सिर्फ़ एक बार आप
डांटें मुझे कि
बेवकूफ़ राम
चरणस्पर्श पंजों को छूकर
करते हैं
घुटनों को नहीं।

अम्मा सुनिए
अक्सर भटकता हुआ मन
पहुंच जाता है
यादों की रसोई में
और हूक सी उठती है
दिल में
एक बार
पत्थर वाले कोयले
की दहकती भट्ठी के पास बैठूं
धीरे से आकर
डालूं कुछ तिनके भट्ठी में
आप मुझे डराएं चिमटा दिखा कर
प्यार से कहें
का हो तोहार मन पढ़ै में
ना लागत बा?

ज्यादा कुछ नहीं
सिर्फ़ एक बार
भट्ठी की आंच में
सिंकी
आलू भरी गरम रोटियां
और टमाटर की चटनी
यही तो मांग रहा।

वक्त फ़िसलता जा रहा
मुट्ठी से निकलती बालू सा
यादें झिंझोड़ती हैं
हम सभी को।

कहीं घर के किसी कोने में
कील पर टंगी सूप
उस पर चिपके चावल के दाने
कहते हैं सबसे
यहीं कहीं हैं अम्मा
उन्हें नहीं पसन्द
सूप से बिना फ़टके
चावल यूं ही बीन देना।

अभी भी जब जाता हूं
घर तो
अनायास मंदिर के सामने
झुक जाता है मेरा सर
बावजूद इसके की आपने
नास्तिक होने का ठप्पा
मेरे ऊपर लगा दिया था।

पर वहां भी आपके हाथो का स्पर्श
सर पर महसूस तो करता हूं
लेकिन दिखती तो वहां भी नहीं
आप अम्मा।

वैसे
एक राज की बात बताऊं अम्मा
बाथरूम के दरवाजे पर बंधी मोटी रस्सी
मैंने हटाई नहीं अभी तक
पिता जी के बार बार टोकने के
बावजूद
आखिर उसी रस्सी को पकड़ कर
आप उठेंगी न कमोड से।

अम्मा
आप जो भी कहें
नालायक
चण्डलवा
बदमाश
नास्तिक----
सब मंजूर है मुझे
पर एक बार
सिर्फ़ एक बार
खाना चाहता हूं
आपके हाथों की
सोंधी रोटी
बेसन की कतरी
एक हल्का थप्पड़
और चन्द मीठी झड़कियां।
सुन रही हैं न अम्मा।
000

डा0हेमन्त कुमार

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उलझन

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

     
(यह चित्र मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार भाई प्रदीप सौरभ जी ने लगभग 35 वर्ष पूर्व बनाया कर मुझे दिया था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद के पुस्तकालय में मुश्किल से दो  ढाई मिनट में। संयोग देखिये आज अपनी इस नयी कहानी के साथ इसे पुब्लिश कर रहा हूं।)
      इससे पहले कि लोग मेरे बारे में आपको बताएं मैं अपने बारे में खुद ही आपको सब कु
छ बता देना बेहतर समझता हूं।यही शायद मेरे हित में भी अच्छा होगा और मेरे जैसे कुछ और युवाओं को भी शायद कुछ सबक मिल सकेगा।और सबसे बड़ी बात यह कि मेरा सबसे बड़ा प्रायश्चित भी होगा यह।
        मेरा नाम महेश है।मैं इस समय बी0ए0 पार्ट वन में पढ़ रहा हूं।मेरे घर में अम्मा बापू दीदी भैया सभी लोग हैं।भरा पूरा परिवार है मेरा।अम्मा घर के काम करती हैं।बापू खेती का काम करते हैं।मेरे घर में मेरा एक प्यारा स कुत्ता भी है मोती।मैं उसे बहुत प्यार करता हूं।और हां अगर मैं गौरव का जिकर न करूं तो मेरी कहानी अधूरी रह जाएगी।वही तो मेरा एक अच्छा और सच्चा दोस्त है।
         बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा ग्यारह में पढ़ता था।गांव से मैं और गौरव एक साथ ही शहर पढ़ने आए थे और अपने एक रिश्ते के चाचा के घर किराए पर कमरा लेकर रहते थे।हम दोनों कभी घर पर स्टोव में खाना बना लेते कभी पास के रामू दादा के होटल पर खा लेते।हम साथ साथ कालेज जाते थे।हमारा कालेज घर से थोड़ा दूर था इसी लिये हमारे घर वालों ने हमारे लिये नयी साइकिलें खरीद कर हमें दे दी थीं।
      उन दिनों हम अपनी छमाही परीक्षा की तैयारी कर रहे थे।कोर्स पूरा हो चुका था। बस हम उसे दुहरा रहे थे।हालांकि हम दोनों की गिनती कालेज के पढ़ाकू छात्रों में थी फ़िर भी पढ़ाई और परीक्षा का दबाव तो था ही हम पर।गौरव तो हमेशा नार्मल रहता पर मैं अक्सर परीक्षा के दिनों में तनावग्रस्त हो जाता था।ऐसा नहीं कि मुझमें आत्मविश्वास की कमी रही हो फ़िर भी एक्जाम्स के समय एक अजीब किस्म का तनाव मेरे ऊपर हावी होने लगता था।
                मैं शनिवार का वह मनहूस दिन कभी नहीं भूल सकता---जिसने कुछ समय के लिये मेरे जीवन में अंधेरा भर दिया था।हम दोनों कमरे में बैठे पढ़ रहे थे।मैं उस दिन भी कुछ ज्यादा तनाव में था।मैं कभी किताबों के पन्ने पलटता कभी क्लास के नोट्स देखने लगता।मेरी मानसिक हालत को गौरव ने भांप लिया।इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहता वो खुद ही बोल पड़ा,क्या बात है महेश तू कुछ परेशान दिख रहा कोई दिक्कत है क्या?
   “नहीं यार गौरव कुछ नहीं बस ऐसे ही—आज पढ़ने में मन नहीं लग रहा।मैं थोड़ा धीमे से बोला।
चल उठ चौराहे तक थोड़ा टहल कर चाय पीकर आते हैं।और हां शाम के लिये सब्जियां अण्डे भी तो लेना है।
   मैं गौरव के साथ चौराहे पर चाय पीने के लिये चल पड़ा।चाय वाले के यहां गौरव ने चाय के लिये बोल दिया और मैं गौरव के साथ चुपचाप सबसे किनारे वाली बेंच पर बैठ गया।हालांकि चाय की दूकान पर बहुत चहल पहल थी।एफ़ एम रेनबो पर बज रहे गीत चार बोतल वोदका काम मेरा रोज का--- के साथ ही लोगों का शोर,राजनीतिकि उठा पटक पर चर्चा।इन सबके बावजूद वहां भी मुझे एक अजीब सी घुटन सी महसूस हो रही थी।गौरव लगातार मुझे शान्त देख कर बोल ही पड़ा, भाई इतना शानदार गाना बज रहा फ़िर भी तू मौनी बाबा बना है आखिर माजरा क्या है?
मजबूरी में मुझे भी बोलना ही पड़ा,यार गौरव किया क्या जाय कुछ समझ में नहीं आ रहा?
पर हुआ क्या?गौरव ने पूछा।
अरे इम्तहान के दस दिन रह गये हैं।पूरी तैयारी कर ली।सब कुछ रिवाइज भी कर लिया है।मैं बहुत धीमे से बोला।
फ़िर—फ़िर क्या चिन्ता तुझे—ऐश कर ऐश।मुझे देख अभी तक एक भी विषय का रिवीजन नहीं कर पाया।फ़ीर भी मस्त हूं।गौरव उसी मस्ती में बोला।
पता नहीं क्यों दिल बहुत घबरा रहा।लगता है कहीं ऐसा न हो इम्तहान देते समय सब भूल जाऊं—कुछ गलत सलत न लिख दूं।कभी लगता है कि सारे पढ़े हुये विषय आपस में गड्ड मड्ड होते जा रहे हैं।मैं लगभग रुआंसा हो चला था।मेरी ये हालत देख कर गौरव ठहाके लगा कर हंसने लगा बिना इस बात की परवाह किये की बाकी चाय पीने वाले ग्राहक क्या सोचेंगे।
अबे महेश लगता है तुझे एक्जाम फ़ीवर हो गया है।चाय पी कर चल घर पर कुछ देर सो लेना।उठेगा तो फ़्रेश हो जाएगा।गौरव उसी रौ में बोला।
   हमारी बातों के बीच में ही एक और युवक आकर हमारी बेंच पर बैठ गया था और हमारी पूरी बातें बहुत ध्यान से सुन रहा था।गौरव की सोने वाली बात पर वह अचानक ही बोल पड़ा, खाली सोने से काम नहीं चलेगा बेटा।तुम्हारे दोस्त को तनावमुक्त होना भी जरूरी है।
मुझे उस आदमी का इस तरह बीच में दखल देना कुछ अच्छा तो नहीं लगा फ़िर भी मैंने उसकी उमर का खयाल करते हुए उससे पूछ ही लिया,आपकी तारीफ़?
थोड़ा मैले कपड़े पहने होने के बावजूद उस युवक की आवाज में गजब का आकर्षण था उसी के प्रभाव से गौरव का भी ध्यान उधर गया।उसने भी कहा,पहले भी कहीं देखा है आपको?
हमारी बात्तें सुन कर युवक मुस्कराकर बोला,जरूर देखा होगा।मैं भी यहीं पास में ही रहता हूं।वैसे तो मेरा नाम विश्वेश्वर प्रसाद है पर सब मुझे बिशु बिशु कहते हैं।तुम भी चाहो तो मुझे इसी नाम से बुला सकते हो।मैं भी अंग्रेजी से एम0ए0 करके कम्पटीशन दे रहा हूं।मैंने अभी यहां बैठे बैठे तुम्हारी बातें सुनी तो मुझे लगा मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकता हूं।देखो महेश का एक ही इलाज है कि वो परीक्षा के समय तनाव में न रहे।
    कैसे त्तनाव में न रहूं बिशु भैया।दिन रात पढ़ना,समझना,याद रखना।मुझे तो लग रहा है मैं आगे कैसे पढ़ सकूंगा?”मैंने अपनी परेशानी बिशु को बताई।
सब ठीक हो जाएगा।इसका भी इलाज है मेरे पास।बस एक पुड़िया खानी होगी।सारा टेंशन छू मंतर।बिशु अजीब रहस्यमय ढंग से मुस्कराकर बोला।
     “तो क्या आप डाक्टरी भी जानते हैं बिशु भैया?गौरव उत्सुकता से बोल पड़ा।
जानता तो बहुत कुछ हूं बच्चों पर मुझे पूछता कौन है।मैं भी पहले तुम्हारी तरह ही पढ़ाई की टेंशन में रहता था।पर अब सब ठीक है।बिशु उसी रहस्यमय अन्दाज मे बोला।
तो बिशु भैया हमे भी वो दवा खिलाओ न।मेरी उत्सुकता बिशु से छिपी न रह सकी।
सब्र करो,सब्र करो महेश।पहले मेरे घर तक तो चलो।फ़िर पुड़िया तुम्हारे मुंह में और सारा टेंशन,तनाव गायब—हवा में उड़ोगे—हवा में-- न घबराहट रहेगी न चिंता।कहते हुये बिशु फ़िर उसी रहस्यमय अन्दाज में मुस्कराया।
और अन्ततः गौरव के काफ़ी विरोध के बावजूद हम बिशु की आवाज के जादू और तनाव दूर करने वाली पुड़िया के आकर्षण में बंधे हुये बिशु के साथ उसके घर तक चले गये।
    फ़िर बिशु द्वारा दी गयी पुड़िया खा कर वाकयी हमने जन्नत की सैर की।और इस तरह वह काला शनिवार मेरे जीवन का अभिशाप बन गया।गौरव तो वहां दोबारा नहीं गया।पर मैं तनाव मुक्त होने के नाम पर बिशु की ही तरह नशीली दवाएं लेने का आदी बनता चला गया।मैं धीरे-धीरे नशे का गुलाम होता गया और बुरी तरह बिशु के पंजों में फ़ंसता गया।पहले तो बिशु मुझे मुफ़्त में तरह तरह की नशीली दवाओं के स्वाद चखाता रहा।और मैं भी उसके आकर्षण में बंधा हुआ नशे का आनन्द उठाता गया।
    जब बिशु इस बात को अच्छी तरह समझ गया कि अब मैं ड्रग्स के बिना नहीं रह सकता तो उसने मुझसे पैसे लेना शुरू कर दिया।मैं भी उसके द्वारा मिलने वाली दवाओं का इस कदर गुलाम बन गया कि उससे दवाएं हासिल करने के लिये मैंने कौन से पाप नहीं कर डाले।लानत है मुझ पर। आज आप सबको बताते हुये मुझे अपने ऊपर शर्म आ रही है कि मैंने ये सब कैसे कर दिया।गांव जाकर बापू से झूठ बोल कर हजारों रूपए लाया।अम्मा की चांदी की करधन चुरा कर बेच डाली।गौरव की साइकिल चुरा कर बेच डाली।यहां तक कि गौरव के बैग से उसके फ़ीस के रूपए भी चुरा लिया।गौरव यह सब जान कर भी मुझसे एक शब्द नहीं बोला।बस वह मुझे हमेशा समझाता रहा कि महेश ये सब छोड़ दे।
    धीरे धीरे मेरी सारी काली करतूतों की खबर मां बापू को भी मिलने लगीं।और मेरे बापू अम्मा सबके सपने बिखरने लगे।वापू ने मुझे कई बार समझाया।मुझे डंडों से पीटा। बड़े भैया ने बहुत समझाया। सभी मुझसे परेशान हो चुके थे।सब धीरे धीरे मेरा साथ छोड़ने लगे।यहां तक कि अन्त में मेरा सबसे अच्छा दोस्त गौरव भी मुझे समझा समझा कर हार जाने के बाद एक दिन रोता हुआ मुझे मेरे हाल पर छोड़ कर चला गया।
  इतना ही नहीं मुझे कालेज से भी निकाल दिया गया।और मैं बिशु के साथ ही उसका गुलाम बन कर रहने लगा।
    अब मेरा ज्यादातर समय बिशु के साथ नशीली दवा लेकर अंधेरे कमरे मे बीतता,या फ़िर हम दोनों कालेजों के आस पास घूम कर मेरे जैसे ही किसी नये शिकार की तलाश में घूमते।
   मैं बिशु के जाल में फ़ंस कर उसकी गुलामी करते हुये पतन की न जाने किन गहराइयों में पहुंच जाता,अगर उस दिन नेहा दीदी मुझे न मिली होतीं।
                         उस दिन भी बिशु के कमरे में स्मैक की एक खुराक लेकर उसके और अपने लिये कुछ खाने का सामान लेने जा रहा था।अभी मैं सड़क पर कुछ ही दूर गया था कि किसी युवती ने मेरा नाम लेकर मुझे पुकारा। एक अनजान युवती के मुंह से अपना नाम सुन कर मैं ठिठक कर रुक गया।मुड़ कर एक सांवली सी मगर खूबसूरत युवती स्कूटर के साथ मेरे बगल में आकर रुक गयी थी।
        “कौन हो सकती है ये?क्या ये भी मेरी ही तरह बिशु कि कोई नयी शिकार है?पर कभी बिशु ने बताया तो नहीं?”अभी मैं सोच ही रहा था कि युवती बोली,“तुम महेश हो न?”
     “आप मुझे जानती हैं?पर मैंने तो कभी आपको--?”मैं हकला कर बोला।
     “पहले तुम मेरी स्कूटर पर बैठ जाओ,बाकी बातें मेरी क्लीनिक पर पहुंचने के बाद।”युवती मुझसे बोली और मैं पता नहीं कैसे सम्मोहित सा होकर उसकी स्कूटर पर बैठ गया।कुछ ही देर में हम उसकी क्लीनिक में पहुंच गये। क्लीनिक में पहुंचकर वह अपनी कुर्सी पर बैठ गयी और मुझे भी बैठने के लिये बोली।“बैठो महेश ये मेरी क्लीनिक है।”और मैं हतप्रभ सा उसके सामने बैठ गया।
    “मगर –आप?”मैं उलझन भरे स्वरों में बोला।
    “मेरा नाम नेहा है और मैं डाक्टर हूं।”युवती मुस्कराकर बोली।
   “पर आप मुझे कैसे जानती हैं?”मेरी उलझन बढ़ती जा रही थी।तरह तरह के खयाल दिमाग में आ रहे थे।
   “मैं तुम्हारे दोस्त गौरव की बहन की सहेली हूं।गौरव ने मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ बताया है।वह तुम्हें लेकर बहुत चिंतित भी रहता है।”नेहा ने मेरे सारे सवालों का जवाब देते हुये कहा।
   “पर आप मुझे यहां---?”मैं अभी भी असमंजस की स्थिति में था।
   “बस मैं तुमसे कुछ बातें करना चाहती थी।”नेहा ने उसे समझाया। सुनते ही मेरे चेहरे का रंग बदलने लगा।एक अजीब सा तनाव मेरे दिमाग में भरने लगा।चेहरे की मांसपेशियां खिंचने लगीं।
  “कैसी बातें करना चाहती हैं आप मुझसे?”क्षण भर में ही मैं उत्तेजित हो गया।क्योंकि मेरे कानों में गौरव की वो बातें कौंध चुकी थीं – वो अक्सर मुझसे कहता था कि तुझे किसी मानसिक चिकित्सक को दिखाना चाहिये।मतलब ये सब उसी गौरव का प्लान है।
  “बोलिये—आप मुझे क्या समझायेंगी—वही न जो बापू समझाते हैं कि मैं बिशु का साथ छोड़ दूं?मैं उसकी दी हुयी दवाएं लेना बन्द कर दूं?यही कहना चाहती हैं न आप भी?”मैं लगभग चीखने लगा था।मेरे चेहरा लाल हो चुका था।स्मैक का असर खतम हो चुका था और गुस्से से मेरे हाथ पैर कांप रहे थे।नेहा दीदी आश्चर्य और भय से मेरे व्यवहार में आये इस बदलाव को बहुत ध्यान से देख रही थीं।मैं शायद गुस्से में कुछ कर बैठता अगर नेहा दीदी अपनी कुर्सी से उठ कर मेरे लिये एक गिलास पानी नहीं लातीं।मैंने पानी का ग्लास एक सांस में ही खाली कर दिया।नेहा अब कुर्सी पर बैठ कर शान्त भाव से बस मेरे चेहरे को लगातार देखे जा रही थी।मेरा गुस्सा शन्त हो चुका था।मैं सामान्य होने की कोशिश में उनकी मेज पर रखे पेपरवेट से खेल रहा था।यद्यपि नेहा लगातार मुझे देख रहीं थीं पर मेरी हिम्मत उनकी तरफ़ देखने की नहीं हुयी।
  “महेश इधर देखो मेरी तरफ़।नेहा दीदी की आवाज मेरे कानों में आयी जरूर पर मेरी निगाहें नीचीं ही थीं।
         “महेश क्या तुम ये ड्रग्स,स्मैक छोड़ नहीं सकते?नेहा दीदी की आवाज फ़िर मेरे कानों से टकरायी।
       “लेकिन मैं कैसे छोड़ दूं बिशु का साथ—अब कुछ नहीं हो सकता।मैं नहीं निकल सकता उसके शिकंजे से अब नेहा दीदी—”कहते कहते मैं रो पड़ा। मेरे सब्र का बांध टूट चुका था।
        नेहा दीदी उठ कर मेरे पास आयी और मेरा सर सहलाते हुये बोली,“अभी कुछ नहीं बिगड़ा महेश—अभी भी तुम चाहो तो उस अंधेरे से निकल सकते हो।”
          नेहा दीदी का प्यार भरा स्पर्श पाकर मैं फ़ूट पड़ा।मैं फ़ूट फ़ूट कर रोता रहा और  नेहा दीदी बस मेरा सर सहलाती रहीं।कुछ सामान्य होने पर मैंने फ़िर सिसकते हुये उनसे कहा,“कैसे निकल सकता हूं दीदी अब मैं उसके जाल से।कौन निकालेगा मुझको उसके चंगुल से?सब मुझसे नफ़रत करते हैं।सबसे बड़ी बात अब मैं उसकी नशीली दवाओं का गुलाम हो चुका हूं मैं टूट चुका हूं बुरी तरह से।”
           लेकिन नेहा दीदी कहां हार मानने वाली थीं।उन्होंने मुझे समझाया,“देखो महेश—तुम्हें तुम्हारी इच्छा शक्ति और आत्मविश्वास ही तुम्हें उस अंधेरे से निकालेंगे।तुम बस आज ये कसम खा लो कि नशीली दवाएं नहीं लोगे।और आज के बाद बिशु और उसके आदमियों से कभी नहीं मिलोगे।फ़िर दुनिया की कोई भी ताकत तुम्हें नशे की ओर नहीं ले जा सकती।और जहां तक इलाज की बात है तो मैं तुम्हें
किसी नशा मुक्ति केन्द्र ले चलूंगी।मैं तुम्हारा साथ दूंगी हर जगह।”
        “सच दीदी आप मेरा साथ देंगी?मैं फ़िर सामान्य जीवन बिता पाऊंगा?पर पर बिशु के आदमी---मेरे मन में अभी भी भय था बिशु और उसके आदमियों का।
    “वो सब तुम मुझ पर छोड़ दो।मैं देकह लूंगी बिशु और उसके आदमियों को।दीदी ने मुझे आश्वस्त किया।
    “सच दीदी आप मेरा साथ देंगी?बचाएंगी बिशु से?मेरी आवाज खुशी से थरथरा रही थी।
    “हां महेश मैं तुम्हें बचाऊंगी नशे के उस जहर से।”नेहा दीदी खुश होकर बोली।
      और इस तरह मैं पूरे दो सालों तक नशे की उन अंधेरी गलियों में भटकने के बाद नेहा दीदी के सहयोग से और अपने आत्मविश्वास के बल पर खुली हवा में सांस लेने के काबिल हो सका।नेहा दीदी ने ही अपने खर्चे से मेरा दाखिला फ़िर कालेज में करा दिया।मैं फ़िर पढ़ने कालेज जा रहा हूं।मेरे घर,परिवार और समाज मे मेरी फ़िर वही इज्जत हो गयी है जो तीन साल पहले थी।
        ये सारी बातें आप सभी तक पहुंचाने का मेरा मकसद सिर्फ़ यही है कि मेरी यह कहानी सुन कर आप भी सतर्क हो जाएं और किसी बिशु जैसे जहर के व्यापारी के चक्कर में पड़कर अपना जीवन खत्म न करें।खुदा हाफ़िज।
000
डा0हेमन्त कुमार

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लेबल

. ‘देख लूं तो चलूं’ "आदिज्ञान" का जुलाई-सितम्बर “देश भीतर देश”--के बहाने नार्थ ईस्ट की पड़ताल “बखेड़ापुर” के बहाने “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक। “मेरे आंगन में आओ” ११मर्च २०१९ ११मार्च 1mai 2011 2019 अंक 48 घण्टों का सफ़र----- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अण्डमान का लड़का अनुरोध अनुवाद अभिनव पाण्डेय अभिभावक अम्मा अरुणpriya अर्पणा पाण्डेय। अशोक वाटिका प्रसंग अस्तित्व आज के संदर्भ में कल आतंक। आतंकवाद आत्मकथा आनन्द नगर” आने वाली किताब आबिद सुरती आभासी दुनिया आश्वासन इंतजार इण्टरनेट ईमान उत्तराधिकारी उनकी दुनिया उन्मेष उपन्यास उपन्यास। उम्मीद के रंग उलझन ऊँचाई ॠतु गुप्ता। एक टिपण्णी एक ठहरा दिन एक तमाशा ऐसा भी एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम एक भूख -- तीन प्रतिक्रियायें एक महत्वपूर्ण समीक्षा एक महान व्यक्तित्व। एक संवाद अपनी अम्मा से एल0ए0शेरमन एहसास ओ मां ओडिया कविता ओड़िया कविता औरत औरत की बोली कंचन पाठक। कटघरे के भीतर कटघरे के भीतर्। कठपुतलियाँ कथा साहित्य कथावाचन कर्मभूमि कला समीक्षा कविता कविता। कविताएँ कवितायेँ कहां खो गया बचपन कहां पर बिखरे सपने--।बाल श्रमिक कहानी कहानी कहना कहानी कहना भाग -५ कहानी सुनाना कहानी। काफिला नाट्य संस्थान काल चक्र काव्य काव्य संग्रह किताबें किताबों में चित्रांकन किशोर किशोर शिक्षक किश्प्र किस्सागोई कीमत कुछ अलग करने की चाहत कुछ लघु कविताएं कुपोषण कैंसर-दर-कैंसर कैमरे. कैसे कैसे बढ़ता बच्चा कौशल पाण्डेय कौशल पाण्डेय. कौशल पाण्डेय। क्षणिकाएं क्षणिकाएँ खतरा खेत आज उदास है खोजें और जानें गजल ग़ज़ल गर्मी गाँव गीत गीतांजलि गिरवाल गीतांजलि गिरवाल की कविताएं गीताश्री गुलमोहर गौरैया गौरैया दिवस घर में बनाएं माहौल कुछ पढ़ने और पढ़ाने का घोसले की ओर चिक्कामुनियप्पा चिडिया चिड़िया चित्रकार चुनाव चुनाव और बच्चे। चौपाल छिपकली छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी जज्बा जज्बा। जन्मदिन जन्मदिवस जयश्री राय। जयश्री रॉय। जागो लड़कियों जाडा जात। जाने क्यों ? जेठ की दुपहरी टिक्कू का फैसला टोपी ठहराव ठेंगे से डा० शिवभूषण त्रिपाठी डा0 हेमन्त कुमार डा०दिविक रमेश डा0दिविक रमेश। डा0रघुवंश डा०रूप चन्द्र शास्त्री डा0सुरेन्द्र विक्रम के बहाने डा0हेमन्त कुमार डा0हेमन्त कुमार। डा0हेमन्त कुमार्। डॉ.ममता धवन डोमनिक लापियर तकनीकी विकास और बच्चे। तपस्या तलाश एक द्रोण की तितलियां तीसरी ताली तुम आए तो थियेटर दरख्त दरवाजा दशरथ प्रकरण दस्तक दिशा ग्रोवर दुनिया का मेला दुनियादार दूरदर्शी देश दोहे द्वीप लहरी नई किताब नदी किनारे नया अंक नया तमाशा नयी कहानी नववर्ष नवोदित रचनाकार। नागफ़नियों के बीच नारी अधिकार नारी विमर्श निकट नियति निवेदिता मिश्र झा निषाद प्रकरण। नेता जी नेता जी के नाम एक बच्चे का पत्र(भाग-2) नेहा शेफाली नेहा शेफ़ाली। पढ़ना पतवार पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप पत्रिका पत्रिका समीक्षा परम्परा परिवार पर्यावरण पहली बारिश में पहले कभी पहले खुद करें–फ़िर कहें बच्चों से पहाड़ पाठ्यक्रम में रंगमंच पार रूप के पिघला हुआ विद्रोह पिता पिता हो गये मां पिताजी. पितृ दिवस पुण्य तिथि पुण्यतिथि पुनर्पाठ पुरस्कार पुस्तक चर्चा पुस्तक समीक्षा पुस्तक समीक्षा। पुस्तकसमीक्षा पूनम श्रीवास्तव पेड़ पेड़ बनाम आदमी पेड़ों में आकृतियां पेण्टिंग प्यारा कुनबा प्यारी टिप्पणियां प्यारी लड़की प्यारे कुनबे की प्यारी कहानी प्रकृति प्रताप सहगल प्रतिनिधि बाल कविता -संचयन प्रथामिका शिक्षा प्रदीप सौरभ प्रदीप सौरभ। प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक शिक्षा। प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव। प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव. प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव। प्रेरक कहानी फ़ादर्स डे।बदलते चेहरे के समय आज का पिता। फिल्म फिल्म ‘दंगल’ के गीत : भाव और अनुभूति फ़ेसबुक बंधु कुशावर्ती बखेड़ापुर बचपन बचपन के दिन बच्चे बच्चे और कला बच्चे का नाम बच्चे का स्वास्थ्य। बच्चे पढ़ें-मम्मी पापा को भी पढ़ाएं बच्चे। बच्चों का विकास और बड़ों की जिम्मेदारियां बच्चों का आहार बच्चों का विकास बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक बदलाव बया बहनें बाघू के किस्से बाजू वाले प्लाट पर बादल बारिश बारिश का मतलब बारिश। बाल अधिकार बाल अपराधी बाल दिवस बाल नाटक बाल पत्रिका बाल मजदूरी बाल मन बाल रंगमंच बाल विकास बाल साहित्य बाल साहित्य प्रेमियों के लिये बेहतरीन पुस्तक बाल साहित्य समीक्षा। बाल साहित्यकार बालवाटिका बालवाणी बालश्रम बालिका दिवस बालिका दिवस-24 सितम्बर। बीसवीं सदी का जीता-जागता मेघदूत बूढ़ी नानी बेंगाली गर्ल्स डोण्ट बेटियां बैग में क्या है ब्लाइंड स्ट्रीट ब्लाग चर्चा भजन भजन-(7) भजन-(8) भजन(4) भजन(5) भजनः (2) भद्र पुरुष भयाक्रांत भारतीय रेल मंथन मजदूर दिवस्। मदर्स डे मनीषियों से संवाद--एक अनवरत सिलसिला कौशल पाण्डेय मनोविज्ञान महुअरिया की गंध मां माँ मां का दूध मां का दूध अमृत समान माझी माझी गीत मातृ दिवस मानस मानस रंजन महापात्र की कविताएँ मानस रंजन महापात्र की कवितायेँ मानसी। मानोशी मासूम पेंडुकी मासूम लड़की मुंशी जी मुद्दा मुन्नी मोबाइल मूल्यांकन मेरा नाम है मेराज आलम मेरी अम्मा। मेरी कविता मेरी रचनाएँ मेरे मन में मोइन और राक्षस मोनिका अग्रवाल मौत के चंगुल में मौत। मौसम यात्रा यादें झीनी झीनी रे युवा रंगबाजी करते राजीव जी रस्म मे दफन इंसानियत राजीव मिश्र राजेश्वर मधुकर राजेश्वर मधुकर। राधू मिश्र रामकली रामकिशोर रिपोर्ट रिमझिम पड़ी फ़ुहार रूचि लगन लघुकथा लघुकथा। लड़कियां लड़कियां। लड़की लालटेन चौका। लिट्रेसी हाउस लू लू की सनक लेख लेख। लेखसमय की आवश्यकता लोक चेतना और टूटते सपनों की कवितायें लोक संस्कृति लोकार्पण लौटना वनभोज वनवास या़त्रा प्रकरण वरदान वर्कशाप वर्ष २००९ वह दालमोट की चोरी और बेंत की पिटाई वह सांवली लड़की वाल्मीकि आश्रम प्रकरण विकास विचार विमर्श। विश्व पुतुल दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस. विश्व रंगमंच दिवस व्यंग्य व्यक्तित्व व्यन्ग्य शक्ति बाण प्रकरण शब्दों की शरारत शाम शायद चाँद से मिली है शिक्षक शिक्षक दिवस शिक्षक। शिक्षा शिक्षालय शैलजा पाठक। शैलेन्द्र श्र प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव स्मृति साहित्य प्रतियोगिता श्रीमती सरोजनी देवी संजा पर्व–मालवा संस्कृति का अनोखा त्योहार संदेश संध्या आर्या। संवाद जारी है संसद संस्मरण संस्मरण। सड़क दुर्घटनाएं सन्ध्या आर्य सन्नाटा सपने दर सपने सफ़लता का रहस्य सबरी प्रसंग सभ्यता समय समर कैम्प समाज समीक्षा। समीर लाल। सर्दियाँ सांता क्लाज़ साक्षरता निकेतन साधना। सामायिक सारी रात साहित्य अमृत सीता का त्याग.राजेश्वर मधुकर। सुनीता कोमल सुरक्षा सूनापन सूरज सी हैं तेज बेटियां सोन मछरिया गहरा पानी सोशल साइट्स स्तनपान स्त्री विमर्श। स्मरण स्मृति स्वतन्त्रता। हंस रे निर्मोही हक़ हादसा। हाशिये पर हिन्दी का बाल साहित्य हिंदी कविता हिंदी बाल साहित्य हिन्दी ब्लाग हिन्दी ब्लाग के स्तंभ हिम्मत हिरिया होलीनामा हौसला accidents. 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